Tuesday 9 August 2016

रंजिश

कुन्ज-ए-दिल में छुपी एक रंजिश सी है,
राह-ए-हयात में मक़ाम हासिल न हुआ ।

क़त्ल तो अरमानों के हुए कई दफ़ा,
गिरफ़्तार मगर कोई क़ातिल न हुआ ।

फिरती रही किश्ती मीलों समंदर में,
बदकिस्मत के नसीब में साहिल न हुआ ।

टकराता रहा जाम महफ़िल में दोस्तों की,
कोई भी ग़म-ए-दिल से वाकिफ़ न हुआ ।

होंसला पूरा था मंज़िल मुकम्मल थी
सिम्त न मिली मालूम जानिब न हुआ ।

हुई मुलाक़ात यूँ तो राह में कई फनकारों से
दिल-ए-नादान फन-ए-ज़िन्दगी का माहिर न हुआ

नासमझ ने माने कानून सभी मैदान-ए-जंग के
बुतपरस्त भी इस ज़माने में काफिर न हुआ

गुहारें लगाता रहा मुद्दई मुंसिफ की कचहरी में
गवाह-ओ-सबूत इक भी हाज़िर न हुआ

ज़माने में है खूब चर्चा मेरी मोहब्बत का
उसका यूँ संगदिल हो जाना वाज़िब न हुआ

मेरी नाकामियों में मिलता है चैन-ओ-आराम उसे
खुदा का कोई बन्दा जहाँ में इतना ज़ालिम न हुआ

मोहब्बतें तो ‘मनु’ ने बहुत कीं बहुतों से कीं,
वफ़ा-ए-सनम इक भी हासिल न हुआ ।