Friday, 16 May 2025

अधूरे ख़त

जब होती है तुझे क़रीब पाने की आरज़ू

उठाता हूँ काग़ज़ कि लिखूँ तुझे ख़त

इजाज़त नहीं देती कलम जान कर तमन्ना मेरी 

स्याही भी रंग अदा नहीं करती मेरी ख़्वाहिशों को

ये जानतीं है तुझे ख़त बेहद पसंद है लेकिन

शायद ये तेरी हदों को भी जानतीं हैं 

और रह जाती हैं मेरी ख्वाहिशें अधूरी 

जैसे ये अधूरे ख़त 

 

तिल

क्यों तेरे बदन के तिल तेरे पहरेदार बने हुए हैं 

मुसलसुल तेरे हुस्न की हिफ़ाज़त किए हुए है 

क्या तिल-ए-लब को थोड़ी रिश्वत अता करे

तेरे होठों के संग मनु कुछ पाल गुज़ार ले

पाज़ेब

तेरे पाँव हसीं हैं ये उनकी ख़ता है 

क़ैद-ए-पाज़ेब उनकी यही सज़ा है 

पहनाऊँ भी मैं मनु उतारूँ भी मैं 

यही मेरी रज़ा है यही मेरी जज़ा है 

Tuesday, 27 August 2024

सपने

चल पड़ा था,

दिल में हौसला,

इरादों में दम,

आँखों में कुछ सपने लिए । 


चलते-चलते,

भूल गया था जीना,

चले जा रहा था,

बस चलने की कसमें लिए । 


छाँव मिली,

साकार पनों ने,

याद दिलाया,

अब जीना है अपने लिए ।


Wednesday, 3 April 2024

अधूरी कहानी

ना दिन में चैन, ना रात की खबर,

ना एक पल को आराम, ना एक पल का सबर।

किरदारों के बीच हुई बातें रूहानी लगती हैं,

अब जाकर मुकम्मल हुई वो अधूरी कहानी लगती है।


टूटी फूटी यादें, फिर कुछ किस्से जोड़ा करती हैं,

फिर बातों की रफ़्तार को दिल की धड़कन तक मोड़ा करती हैं।

कभी उथली सी, कभी अंतरंग, कभी जिस्मानी लगती हैं,

अब जाकर मुकम्मल हुई वो अधूरी कहानी लगती है।


कभी लगे इस कहानी का अंत, कोई सार नहीं,

पर सारहीन इन प्रेमपुटों से होता किसको प्यार नहीं।

कभी मीरा, कभी हीर, कभी मस्तानी लगती हैं,

अब जाकर मुकम्मल हुई वो अधूरी कहानी लगती है।


वैसे तो साधारण है, पर अपने आप में खास है,

कुछ नए अध्याय और जोड़ने की जाने क्यों प्यास है।

इस कहानी को लिखने वाली, मनस्वी बेहद दीवानी लगती है,

अब जाकर मुकम्मल हुई वो अधूरी कहानी लगती है।

Wednesday, 25 January 2017

इंतज़ार

किस किससे पूछूँ, किसका ऐतबार करूँ,
तू ही बता कब तक तेरा इंतज़ार करूँ ।

क़यामतें बीती जा रही हैं दीदार-ए-यार को,
तेरी तस्वीर से ही अब अपनी चाहत का इज़हार करूँ ।

जब भी मेरे दिल में तेरी यादों का तूफ़ान उठे,
तेरे कंगन से खेलूँ , तेरी पायल से झनकार करूँ ।

ना तुझसे कुछ कह सकूँ ना तुझसे कुछ सुन सकूँ ,
लफ़्ज़ों को ही अब अपनी तड़प का राज़दार करूँ ।

मैं तुझसे ना मिल सकूँ तो ना सही ,
किसी और से मिलने से भी मैं अब इनकार करूँ ।

मैं जब तक जिऊँ, मैं तब तक मरूँ ,
तू ही बता कब तक तेरा इंतज़ार करूँ ।

Tuesday, 9 August 2016

रंजिश

कुन्ज-ए-दिल में छुपी एक रंजिश सी है,
राह-ए-हयात में मक़ाम हासिल न हुआ ।

क़त्ल तो अरमानों के हुए कई दफ़ा,
गिरफ़्तार मगर कोई क़ातिल न हुआ ।

फिरती रही किश्ती मीलों समंदर में,
बदकिस्मत के नसीब में साहिल न हुआ ।

टकराता रहा जाम महफ़िल में दोस्तों की,
कोई भी ग़म-ए-दिल से वाकिफ़ न हुआ ।

होंसला पूरा था मंज़िल मुकम्मल थी
सिम्त न मिली मालूम जानिब न हुआ ।

हुई मुलाक़ात यूँ तो राह में कई फनकारों से
दिल-ए-नादान फन-ए-ज़िन्दगी का माहिर न हुआ

नासमझ ने माने कानून सभी मैदान-ए-जंग के
बुतपरस्त भी इस ज़माने में काफिर न हुआ

गुहारें लगाता रहा मुद्दई मुंसिफ की कचहरी में
गवाह-ओ-सबूत इक भी हाज़िर न हुआ

ज़माने में है खूब चर्चा मेरी मोहब्बत का
उसका यूँ संगदिल हो जाना वाज़िब न हुआ

मेरी नाकामियों में मिलता है चैन-ओ-आराम उसे
खुदा का कोई बन्दा जहाँ में इतना ज़ालिम न हुआ

मोहब्बतें तो ‘मनु’ ने बहुत कीं बहुतों से कीं,
वफ़ा-ए-सनम इक भी हासिल न हुआ ।